आयुर्वेदिक जीवन चक्र
लेकिन जैसे-जैसे जीवन शैली बदली और पश्चिम और पश्चिमी तथा यूरोपीय जीवन शैली का प्रभाव हमारे समाज पर छाता गया वैसे-वैसे यह घरेलु नुस्खों का ज्ञान तथा सीखने - सिखाने की परम्परा ख़त्म होती गई! एक तरह का सभ्यतागत विभेद बड़ी तेजी से फैलता गया की जो लोग इस तरह के घरेलु नुस्खों को जानते हैं, या उनका उपयोग करते है वे सब अशिक्षित और गँवार है! और ऐसा माना गया की भारत में समस्त ग्रामीण जनता इसका प्रतिनिधित्व कराती है! दूसरी और शहर में रहने वाली आबादी अधिक सभ्य है क्यूंकि वह इस तरह के घरेलु उपचारों में कोई विश्वास नहीं रखती बल्कि इसकी जगह पश्चिम से आयी ऐलोपेथी की चिकित्सा में ज्यादा विश्वास रखती है! इसलिये १८ वीं शताब्दी में मैकाले द्वारा विकसित की गई आधुनिक शिक्षा प्रणाली में इस तरह के नुस्खों को पढ़ाने या सिखाने का कोई प्रावधान नहीं रहा होगा! चूँकि शहरी वर्ग की जीवन पद्धति पश्चिम की मान्यताओं और सभ्यता के आधार पर विकसित हो रही थी! इसलिये घर में पारम्परिक रूप से घरेलु नुस्खों को सिखाने की यह परम्परा लगभग ख़त्म सी हो गयी और फिर सरकार और प्रशासन की से भी ऐलोपैथी चिकित्सा को ही प्रोहत्सान दिया गया| परिणाम स्वरुप धीरे-धीरे हमारी बहनें और घर की महिलाएं इस ज्ञान से वंचित होती गयी या उनको यह ज्ञान देने परम्परा ख़त्म होती गई|
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वास्तव में आज हम सबको ऐसा तो महसूस होता ही है की स्वास्थ्य ही सबसे बड़ी पूंजी है | जो अच्छी तरह से स्वस्थ है वही सबसे धनी है | यदि हम ऐसा मानते है तो आज की आधुनिक सभ्यता के हिसाब से हमारे समाज के अधिकांश लोग रोगी मिलेंगे, उसका सबसे बड़ा कारण आज की जीवन शैली और खान पान है | आज की आधुनिक (पश्चिमी) सभ्यता की मान्यता है की जितना अधिक तनाव बढ़ेगा उतना अधिक विकास होगा | इसका एक निहितार्थ यह भी है की जितना अधिक तनाव बढ़ेगा उतने अधिक रोग भी होंगे, और ऐसा हमें आज दिखाई भी देता है कि जैसे-जैसे डॉक्टर बढ़ते जाते है, जैसे-जैसे दवाइयां बढती जाती है, जैसे-जैसे हॉस्पिटल बढ़ते जाते है | वैसे-वैसे रोगी और रोग भी बढ़ते रहे हैं | रोगी और रोग बढ़ते जाने का दुसरा कारण यह भी है की हम घरेलू चिकित्सा के नुस्खों से बहुत दूर चले आये है | और साथ ही खाने पीने के व्यवहार को भी भूल गए है| अर्थात हम ये नहीं जान पाते की हम क्या खाये और क्या न खायें| साधारण से साधारण परिवारों में भी इस तरह की कोई जानकारी नहीं रहती की किस मौसम में क्या-क्या खाने से कौन-कौन से लाभ होतें है, और क्या-क्या न खाने से क्या-क्या हानि होती है| अर्थात हमें खान-पान के संयोगों का पता ही नहीं चल पाता इसलिये भी बीमारियां काफी बढाती जाती है|
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घरेलु चिकित्सा आयुर्वेद के ज्ञान से ही निकली हुई एक धरा है इसमें भी सबसे पहले यह ध्यान रखना पडेगा कि स्वास्थ्य क्या है, और वह कैसे अच्छा रखा जा सकता है| इसलिये आयुर्वेद में दिनचर्या और अनुचर्या बारे में काफी विस्तार से बताया गया है | सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक नियमित जीवन जीने के तरीकों पर भी काफी विस्तार से बताया गया है|
कृपया इनका ध्यान अवश्य रखें:
- फलों का रस, अत्यधिक तेल की चीजें, मट्ठा, खट्टी चीज रात में नहीं खानी चाहिए|
- घी या तेल की चीजें खाने के बाद तुरंत पानी नहीं पीना चाहिए बल्कि एक-डेढ घंटे के बाद पानी पीना चाहिए |
- भोजन के तुरंत बाद अधिक तेज चलना या दौड़ना हानिकारक है| इसलिए कुछ देर आराम करके ही जाना चाहिए
- शाम को भोजन के बाद शुद्ध हवा में टहलना चाहिए खाने के तुरंत बाद सो जाने से पेट की गड़बड़ियां हो जाती है|
- प्रात:काल जल्दी उठना चाहिए और खुली हवा में व्यायाम या शरीर श्रम अवश्य करना चाहिए |
- तेज धूप में चलने के बाद, शारीरिक मेहनत करने के बाद या शौच जाने के तुरंत बाद पानी कदापि नहीं पीना चाहिए|
- केवल शहद और घी बराबर मात्रा में मिलाकर नहीं खाना चाहिए वह विष बन जाता है|
- खाने पीने में विरोधी पदार्थों को एक साथ नहीं लेना चाहिए जैसे दूध और कटहल, दूध और दही, मछली और दूध आदि चीजें एक साथ नहीं लेना चाहिए|
- सिर पर कपड़ा बांधकर या मौजे पहनकर सोना नहीं चाहिए|
- बहुत तेज या धीमीं रोशनी पढ़ना, अत्यधिक टेलीविजन या सिनेमा देखना, अधिक ठंडी-गर्म वस्तु का सेवन, अधिक मिर्च-मसालों का सेवन, तेज धूप में चलने से बचना चाहिए| तेज धूप में चलना भी हो तो सिर और कान पर कपड़ा बांधकर चलना चाहिए|
- गर्म पानी में निम्बू निचोड़कर और उसमे शहद मिलाकर गुनगुने पानी से लगातार पंद्रह दिन तक सेवन लाभदायक है|
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